तुरी जातियों की पहचान(turi cast)


सर्व प्रथम शिल्प कला के संसार
में, मिटटी कला के बाद यदि कोई कला आयी तो वह है बाँस कला । मानव आरंभ से ही कला
प्रेमी रहा है, उसने जब अपने हाथों से कलात्मक चीजें बनानी आरंभ की उसी समय से
बाँस की वस्तुएँ बनाती आ रही हैं । प्रकृति, आवश्यकता, उपलब्ध संसाधन के अनुरूप ही
कला का निर्माण एवं विकास होता है । मानव अपने जीवन में इसे अंगीकार कर स्वयं की,
समाज की आवश्यकता की पूर्ति बखूबी करता हैं, तुरी बाँस के दक्ष कलाकार होते हैं,
ये अपनी जादुई अंगुलियों से अनेकों
वस्तुएँ बनाते हैं। इनके अलावे बाँस काम- महली, गोंड, डोमरा, बिरजिया, हो, संथाली, पहाड़िया आदि जन-जातियाँ करती हैं ।
ये लोगों की हर तरह की आवश्यकता चाहे वह घरेलु कार्य, कृषि कार्य, पर्व-त्योहार या
हो संस्कर, शादियों की आवश्यकता बाँस निर्मित सामानों की पूर्ति करते आ रहें हैं और
भविष्य में भी करते रहेंगे। साथ ही ये इनकी जीविका के भी साधन हैं। तुरी जाति का
नाम- तुनने, बिनने के कारण “तुरी” पड़ा । दुसरे समुदाय के लोग इन्हें सम्मान
के साथ मिस्त्री या गुरु कहकर संबोधित करते हैं। यहाँ झारखंड में लोहार को भी गुरु
अर्थात बड़ा संबोधित करते हैं। झारखंड की यही विशेषता है। तुरीन की उत्पति कथा से
जाहिर होता है कि ये लोग आदि पुरुष सुपा भगत के वंशज हैं, जो बाँस काम करते थे ।
तुरी अनेक गोत्रों जैसे- मइलवार , हांसदा, चरहन, बागे, सुरईन, तमगडिया, अईद,
लकड़वार, जाडी, इन्दवार, सांवर, आदि में विभाजित हैं । ये गोत्र पर आधारित हैं ।
इनके समाज में गोत्र के आधार पर काम बंटा हैं। जैसे- मइलवार राजा है । तो सुरईन ठाकुर । जो
पाने समाज में , अपने ही सामाजिक कार्यों का निर्वहन करते हैं । ये छोटानागपुर के
लगभग सभी पर्व-त्योहार मानते हैं । साथ ही ये कुल देवता की पूजा, सावन सप्तमी के
दिन, बड पहाड़ी , (खूँटी पूजा) देवउठान,
सोहराई,आदि मनाते हैं । ये बकरे, मुर्गे की बलि और पूर्वजों को तपान(हडिया, चावल
से निर्मित पये पदार्थ) भी ढालते हैं ।ये भुत-देव में भी विश्वास करते हैं ।
ऐसे तो तुरी या बांस शिल्पकार सभी
गाँवों में दो, चार घर के आलावे कहीं कहीं पर 15-20 घर तक पायें जाते हैं । ये
वैसे स्थानों पर निवास करना पसंद करते हैं, जो जंगल से समीप हो और बाजार,बस्तियाँ
भी दूर न हो, ताकि बाँस से बनाई गयी चीजों को बेचकर अर्थ की प्राप्ति कर सकें तथा
अपनी आर्थिक विकास कर परिवार की रोजी-रोटी की आपूर्ति हो सके।
संजय मांझी,ग्राम कोन्सा, पोस्ट लतरा, थाना कामडारा, जिला
गुमला,झारखंड ,
संजय मांझी शोधार्थी (पी-एच.डी.) वर्तमान पता कमरा संख्या 104, सुखदेव छात्रावास,
महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा,(central university) महाराष्ट्र,भारत ।
Turi jati ko aage kaise badhaye iska name roshan kaise hoga
ReplyDeleteTuri jati ka vikash tabhi sambhav hai jab Tak tokari sup Dori banana chod de.in sab vastu banakar koi agge hamare jati mein nhi bada hai,balki is business se gandgi feli hai log hin bhavna se dekhte hai,Mera vichar yahi hai ki iske alawa dusra Kam Kare,lekin koi v hamare sawjati ke log ye Kam nhi chodenge
ReplyDeleteTuri cast pahle apne itihash ko janega.Turi origin,indegenous,social chage,culture,new bamboo technology , Skill development, Marketing etc.apna hunar ko bechkar income karna hoga.in sabhi ke liye.... institution, Organigation ke jarurat padegi
ReplyDeleteसंजय जी बेहद सराहनीय कार्य है आपका। इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आपका धन्यवाद।
ReplyDeleteSanjay ji aap ka msg bahut acha laga aap se baat karna chahata hun // turi samaj prakhand adyaksh BANO mo. No. 7763933997
ReplyDeleteApsulutly write Sanjay bhai g
ReplyDeleteTuri ko na ya aadivasi ghoshit karti hai
ReplyDeleteNot good
ReplyDeleteMe rakesh turi❤❤
ReplyDeletekuch karna hoga
ReplyDeleteआपकी जानकारी गलत है, छोटा नागपुर के तूरी अलग है।
ReplyDeleteछोटा नागपुर मे बांस का काम करने वाले और टोकरी बनाने वाली एक जाति है जो की मुंडा की एक शाखा है, मुंडा की कुल 13 शाखाएं है। तुरी जाति की अपनी भाषा होती है। तुरी भाषा मुंडारी की एक बोली है। पौराणिक कथा लुटकुम हाडम मे तुरी जाति की स्थापना का जिक्र है।
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